खौलते पानी का भंवर - 1 Harish Kumar Amit द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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खौलते पानी का भंवर - 1

‘‘आठ हज़ार तो आप अब दे दीजिए और बाकी के आठ हज़ार आख़िरी सुनवाई से पहले दे देना.’’

कल शाम से यह वाक्य उसके दिमाग़ पर हथौड़े की तरह बज रहा था. कहाँ से लाए वह आठ हज़ार रुपए? उस जैसे पन्द्रह हजार रुपए महीना पाने वाले एक मामूली क्लर्क के लिए आठ हज़ार रुपए कोई छोटी-मोटी रकम तो है नहीं कि झट जेब से निकालकर दे दी. लेकिन खन्ना साहब को रुपए अदा करना भी तो बहुत जरूरी है, क्योंकि वे ही उसके हाथों से फिसलती दीख रही उसकी नौकरी बचाकर उसे दर-दर की ठोकरें खाने से बचा सकते हैं.

कुछ भी हो, दो-तीन दिनों में आठ हज़ार रुपये का इंतज़ाम तो उसे करना ही पड़ेगा - किसी भी तरीके से. करीब तीन हज़ार रुपये तो बैंक से निकलवाए जा सकते हैं. मन-ही-मन वह हिसाब जोड़ने लगा है. अपने खर्च पर थोड़ा काबू रखकर दो हज़ार रुपए इस महीने की तनख्वाह में से भी बचाए जा सकते हैं. लेकिन इस तरह तो सिर्फ़ पाँच हज़ार रुपये ही बनेंगे. बाकी के तीन हज़ार रुपयों का बंदोबस्त कहाँ से होगा? हर महीने घरवालों को भेज जाने वाले पाँच हज़ार रुपए भी वह भेज चुका है. न भेज चुका होता तो भी उन पैसों में कटौती करने को उसका दिल न मानता. मकान मालिक को कमरे के किराए के अपने हिस्से के तीन हज़ार रुपए भी उसने दे दिए हैं. मकान मालिक तो है भी बहुत नकचढ़ा. उसके किराए का उधार नहीं किया जा सकता.

वह कागज़-पैन लेकर पूरे महीने के खर्चों को लिखने लगा है. सभी खर्चे कस-कस के लिखने पर भी वह इसी नतीजे पर पहुँचा है कि इस महीने की तनख्वाह में से दो हज़ार के बजाय ज़्यादा-से-ज़्यादा पच्चीस सौ रुपये ही बचाए जा सकते हैं. लेकिन इस तरह भी उसके पास साढ़े पाँच हज़ार रुपये ही हो पायेंगे. चलो खाने-पीने वग़ैरह के खर्च में पाँच सौ रुपयों की कटौती वह और कर लेगा, मगर बाकी के दो हज़ार रुपयों का जुगाड़ किस तरह बिठाया जाए, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा.

ले-देकर अब बेदी और अशोक से ही उसे कुछ उम्मीद है. बेदी उसका दोस्त है और उसके दफ़्तर में उसकी तरह एक क्लर्क. अशोक किराए के कमरे का उसका साथी है.

घंटे-डेढ़ घंटे बाद अशोक जब कमरे में आया है, तो उसने उससे कुछ रुपए उधार देने की बात की है. सुनकर वह तो उल्टा उसे ही कहने लगा है कि आजकल खुद उसे पैसे की बड़ी सख़्त ज़रूरत है. वह तो खुद ही उससे कुछ रुपए माँगने की सोच रहा था. अशोक बड़ा घाघ आदमी है - यह बात उसे अच्छी तरह से मालूम है. उससे तो एक पैसे की भी उम्मीद करना फ़िजूल है.

अगले दिन उसने दफ़्तर में बेदी से बात की है. बात क्या की है, किसी तरह दो हज़ार रुपयों का इंतज़ाम कर देने की मिन्नत की हैं - यह जानते हुए भी कि खुद बेदी की हालत भी कोई खास अच्छी नहीं और वह भी उसकी तरह हर महीने पन्द्रह हज़ार रुपए ही पाता है. बहुत ज़ोर डालने पर वह अगले दिन घर से एक हज़ार रुपए ला देने को राज़ी हो गया है - वह भी इस शर्त पर कि अगर अगली तनख्वाह मिलने से पहले उसे इन रुपयों की ज़रूरत पड़ गई, तो अपने पैसे वह वापिस माँग लेगा. वह जानता है कि बेदी बुरा आदमी नहीं, पर उसकी भी अपनी मजबूरियाँ हैं.

अब बाकी के एक हज़ार रुपयों की जुगत कहाँ से भिड़ाई जाए? कुछ सूझ नहीं रहा उसे. अपना खर्च तो कम से कम लगाकर ही तनख़्वाह में से तीन हज़ार रुपए बचा सकने की बात उसने सोची है. आखिर पन्द्रह हज़ार रुपए की तनख्वाह में से पाँच हज़ार रुपए गाँव भेजकर और तीन हज़ार रुपए कमरे का किराया देकर और बचाया ही कितना जा सकता है? वह तो इस महीने 2,130 रुपए मंहगाई भत्ते का बकाया मिल गया था, वरना हालत और भी खराब होती.

अचानक उसे याद आया है कि पिछले दो-तीन महीने की रद्दी बेचकर भी तो कुछ पैसा हाथ में आ सकता है. अगली सुबह ही रद्दी उसने बेच दी है, लेकिन सिर्फ सौ रुपए मिले हैं, हालाँकि उसे कम से कम डेढ़ सौ रुपए मिल जाने की उम्मीद थी. चलो फिर भी सौ रुपए तो हाथ आ ही गए. लेकिन यह रद्दी बिजनेस अब और तो चल नहीं पाएगा. हर रोज तीन रुपए का अखबार अब कहाँ खरीद सकेगा वह? वह सोच में डूबा हुआ है. अब नौ सौ रुपयों की जरूरत उसे और है. इनमें से सौ रुपए तो वह अपने खर्च में और कटौती करके मिला सकता है. तब भी आठ सौ रुपयों की मुसीबत बाकी रहेगी.

उसने तय कर लिया है कि खन्ना साहब को वह फिलहाल 7,200 रुपए ही दे देगा. बाकी के आठ सौ रुपयों के लिए अगली तनख़्वाह मिलने तक की मोहलत माँग लेगा. अगर उधार के लिए वे राजी हो गए तो ठीक है, नहीं तो अपने खुद के खर्च के पेसों में से बाकी के आठ सौ रुपए उन्हें दे देगा. खुद जैसे भी हो, अगली तनख़्वाह मिलने तक दिन काट लेगा. वैसे उसे लगता है कि खन्ना साहब बाकी के आठ सौ रुपए अगले महीने ले लेने को मान जाएंगे. इतने बुरे आदमी नहीं लगते वे.

अगले दिन उसने खन्ना साहब के दफ़्तर जाकर उन्हें 7,200 रुपए दे दिए हैं. इस बात से उसे बहुत खुशी हुई है कि बाकी के आठ सौ रुपए अगले महीने ले लेने को वे मान गए हैं. मगर साथ ही इस बात ने उसका जी भी खट्टा किया है कि उससे रुपए लेकर उन्होंने अच्छी तरह से गिने हैं. क्या उन्हें उस पर इतना भी विश्वास नहीं? भोलापन और मासूमियत तो उसके चेहरे से ही टपकते हैं. पर तभी अपने अंदर से ही इस बात का जवाब उसे मिल गया है - उस पर रिश्वत देने का आरोप है जो कि झूठा नहीं है और खन्ना साहब का उसके डिफेंस असिस्टेंट बनना मंजूर करने से पहले ही वह उनके सामने अपना जुर्म कबूल भी कर चुका है. ऐसे में भला उस पर विश्वास किया भी कैसे जा सकता है?

कभी-कभी तो उसे अपनेआप पर बहुत गुस्सा आने लगता है कि आख़िर उसने एक क्लर्क को एक हज़ार रुपए बतौर रिश्वत देने की पेशकश की ही क्यों? ऐसा करने की ज़रूरत उसे थी ही कहाँ? असिस्टेंट (सहायक) ग्रेड परीक्षा की तैयारी के लिए 60 दिन की उसकी छुट्टी तो मंत्रालय के सबसे बड़े अधिकारी, सेक्रेटरी (सचिव) साहब, मंजूर कर ही चुके थे.

वह सैक्रेटरी साहब के व्यक्तिगत स्टाफ में क्लर्क था. उसकी छुट्टी की अर्ज़ी को सैक्रेटरी के प्रमुख निजी सचिव ही मंजूर करके स्थापना अनुभाग को भेज सकते थे, मगर प्रमुख निजी सचिव से ज़िद करके उसने अर्ज़ी को सैक्रेटरी साहब के पास भिजवा दिया था. उसे डर था कि स्थापना अनुभाग वाले उसे इतनी लंबी छुट्टी देने से इंकार न कर दें. लेकिन अगर सैक्रेटरी साहब ने छुट्टी मंजूर कर दी, तो वे लोग कुछ नहीं कर पाएंगे. सैक्रेटरी सहाब को अर्ज़ी भेजने के आधे-पौने घंटे बाद चपरासी जब उनके कमरे से निपटाई हुई फाइलें और डाक उठाकर लाया तो उसमें उसकी अर्ज़ी भी थी, जिसे उन्होंने मंजूर कर दिया हुआ था.

उसके बाद माना कि स्थापना अनुभाग के क्लर्क, सूद, ने उसकी अर्ज़ी पर लिख दिया कि कोई सब्स्टीट्यूट (स्थानापन्न) न होने की वजह से उसे सिर्फ 20 दिन की ही छुट्टी दी जा सकती है और वह भी इम्तहान शुरू होने से पहले, लेकिन उसके ऐसा लिख देने के बावजूद क्या सेक्रेटरी साहब की मंजूर की गई छुट्टी को कोई कम कर सकता था? फिर उसने सूद को 60 छुट्टियाँ ही देने के लिए एक हज़ार रुपए देने की कोशिश की ही क्यों?

उसे लगता है कि अब पाँच महीने बाद उस वक़्त रिश्वत देने की कोशिश करना चाहे बिल्कुल बेमानी और बचकाना लग रहा हो, मगर जिस वक़्त ये रुपये दिए गए थे, तब यह सब उसे कतई गलत नहीं लग रहा था. नई-नई नौकरी लगी होने के कारण उन दिनों उसे सरकारी नियमों और तौर-तरीकों का तो कुछ खास पता था नहीं. तब तो उसके दफ़्तर के साथियों ने जैसा उसे कहा, उसने मान लिया था. तब तो उसे यह बताया गया था कि सूद के ऐसा लिख देने के बाद अब उसे सिर्फ़ तब ही 60 दिन की छुट्टी मिल सकती है, जब स्थापना अनुभाग वाले उसके बदले कोई सब्स्टीट्यूट देने को राजी हो जाएं. इसलिए अगर वह छुटृटी पर जाना चाहता है तो उसे किसी सब्स्टीट्यूट का इंतज़ाम करवाना चाहिए और ऐसा सूद से साँठ-गाँठ करके ही हो सकता है.

खन्ना साहब के उसका डिफेन्स असिस्टेंट बनने के बाद उसकी परेशानी काफी हद तक कम हो गई है, लेकिन इंक्वायरी की तलवार तो उसके सिर पर लटक ही रही है न. हर पल उसे यही डर लगा रहता है कि कहीं उस पर रिश्वत देने का आरोप साबित हो ही न जाए, क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो यह सरकारी नौकरी हर हालत में उसके हाथ से जाती रहेगी. यह सरकारी नौकरी ही थी जो क्लर्क ग्रेड परीक्षा में मैरिट में आ जाने की वजह से उसे मिल गई थी, वरना आज के ज़माने में आसानी से नौकरी मिलती कहाँ है.

केस की सुनवाइयाँ शरू हो गई हैं. उसे बहुत खुशी है कि खन्ना साहब उसका केस बहुत अच्छी तरह संभाल पा रहे हैं. कुछ ऐसे नुक्ते उन्होंने निकाल लिए हैं जिनसे उसे उम्मीद बंधती जा रही है कि इस केस से वह बरी हो जाएगा. सबसे बड़ा तर्क वे यह दे रहे हैं कि सूद को रुपए देते देखे जाने का कोई आंखोंदेखा गवाह नहीं है. इंक्वायरी ऑफिसर, घोष साहब, को किसी किताब से यह नियम भी उन्होंने निकालकर दिखा दिया है कि उंगलियों के निशानों की जाँच के लिए नोटों को फिंगर प्रिंट्स ब्यूरो के पास अब नहीं भेजा जा सकता. ऐसा इंक्वायरी शुरू होने से पहले ही किया जा सकता था.

खन्ना साहब का भी यही ख़याल है कि या तो इस केस से वह बरी कर दिया जाएगा या ज़्यादा-से-ज़्यादा चेतावनी का नोटिस देकर उसे छोड़ दिया जाएगा. लेकिन जब तक ऐसा हो न जाए, तब तक निश्चिंत होकर कैसे बैठा जा सकता है.

यूँ नौकरी बच जाने की उसकी उम्मीद तो पहले भी कई बार बंध चुकी है. जिस दिन उसने सूद को रुपए देने की कोशिश की थी, उसी रात साढ़े आठ बजे के करीब उसके घर प्रशासन के ज्वायंट सैक्रेटरी (जे.एस.) की चिट्ठी पहुँच गई थी कि वह उन्हें अगले दिन सुबह साढ़े नौ बजे किसी अभियोग की जांच के सिलसिले में मिले. चिट्ठी पढ़ते ही धक्क से रह गया था वह. सब कुछ घूमता हुआ-सा नजर आने लगा था उसे. पसीने से सराबोर बदन लिए वह चारपाई पर निढाल लेट गया था. दिमाग़ में भूचाल-सा मचता उसे महसूस हो रहा था.

थोड़ी देर बाद जब उसकी हालत कुछ संभली थी तो उसने इस मुसीबत का कोई हल सोचना शुरू किया था. यह तो वह जान ही गया था कि कल जे.एस. उससे एक हज़ार रुपयों के बारे में ही पूछेंगे. उसने तय कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, रुपए देने की बात वह कभी कबूल नहीं करेगा. मगर तभी यह बात बिजली की तरह उसके दिमाग़ में कौंधी थी कि नोटों पर उसकी उंगलियों के निशान तो मिट नहीं जाएंगे. फिर क्या होगा? उसका दिमाग़ चक्कर खाने लगा था. काफी देर तक सोच-विचार करने के बाद वह इसी नतीजे पर पहुंचा था कि फिलहाल तो रुपए देने की बात से साफ मुकर जाना ही ठीक है. अगर नोटों पर उसकी उंगलियों के निशानों की जाँच करवाई गई और निशान उसके साबित हो गए, तब वह कोई और तरकीब सोचेगा.

सर्दियों के दिन थे. अब रात के नौ बजे सलाह-मश्वरा करने वह जाता भी तो किसके पास? और वैसे भी इस बारे में किसी को बताना उसे ठीक लग नहीं रहा था.

उसे मालूम था कि जे.एस. बहुत सख़्त आदमी हैं. वे तो जब तक मामले की जड़ तक नहीं पहुंचेंगे, उसे छोड़ेंगे नहीं. और अगर उन्हें पता चल गया कि उसने वाकई सूद को रिश्वत देने की पेशकश की थी, तब तो वे उसे बिल्कुल नहीं बख्शेंगे. वे तो उसके खिलाफ़ सख़्त-से-सख़्त कार्रवाई करेंगे. लेकिन तभी उम्मीद का एक तार उसके दिमाग़ में झनझनाया था कि अगर जे.एस. को अपनी काबिलियत के कुछ सबूत वह दिखाए, तो शायद वे उसके प्रति नर्म रवैया अख़्तियार कर लें. उसके स्कूल-कॉलेज के प्रमाणपत्र ही ऐसे सबूत थे. विद्यार्थी जीवन में अक्सर वही अपनी क्लास में पहले नंबर पर आया करता था. मैट्रिक के बाद से तो उसे वजीफ़ा मिलना भी शुरू हो गया था. इसके अलावा उसकी रचनाएँ भी कभी-कभार पत्र-पत्रिकाओं में छपा करती थीं. उसने अपने प्रमाणपत्र और अपनी रचनाओं वाली पत्र-पत्रिकाएँ अगले दिन दफ़्तर ले जाने की बात सोच ली थी.

सारी रात वह सो नहीं पाया था. बेचैनी उससे करवटें बदलवाती रही थीं. तनाव उसे इतना ज़्यादा था कि कई बार उसे लगने लगता कि कहीं उसके दिमाग़ की नसें ही न फट जाएं. यही बात उसका ख़ून सुखा रही थी कि इस मुसीबत से अब वह छुटकारा कैसे पाएगा. कभी-कभी तो उसे लगने लगता कि यह सब कोई सपना है, लेकिन अगले ही पल जब उसे असलियत का एहसास होता तो वह अपने को पसीने से भीगा हुआ पाता.

अगली सुबह जब वह बेतरह धड़कते दिल के साथ जे.एस. के कमरे में दाखिल हुआ तो वहाँ प्रशासन के डिप्टी सेक्रेटरी (डी.एस.) भी मौजूद थे. उन दोनों के उससे एक हज़ार रुपयों के बारे में पूछताछ किए जाने पर शुरू-शुरू में तो इस बात से वह बिल्कुल इंकार करता रहा कि उसने सूद को पैसे देने की पेशकश की थी, लेकिन उसके बार-बार के इंकार पर उससे कहा गया कि ठीक है, अब नोटों को फिंगर प्रिंट्स ब्यूरो के पास भेजा जाएगा और अगर उसकी उंगलियों के निशान इन नोटों पर पाए गए तो यह विजिलेंस केस बन जाएगा. तब बात उन लोगों के बस में नहीं रहेगी. ऐसे में उसके खिलाफ़ सख्त कार्रवाई ही की जा सकेगी. उससे यह भी कहा गया कि अभी तो वक़्त है, अगर वह मान ले कि उसने वाकई पैसे देने की पेशकश की थी, तो उसकी इस गलती को उसकी बेवकूफी और नासमझी मानकर उसके प्रति नर्म रवैया अख़्तियार किया जा सकता है.

वैसे तो अपना जुर्म वह शायद ही कबूल करता, पर विजिलेंस केस बन जाने की बात सुनकर वह बहुत डर गया था, हालांकि विजिलेंस का सही-सही मतलब भी तब उसे मालूम नहीं था. और तब उसने उन दोनों के सामने यह मान लिया था कि सूद को एक हज़ार रुपए देने की पेशकश उसने की थी.

घर से लाए प्रमाणपत्र और अख़बार वगैरह उसने उन्हें दिखाए थे. देखकर वे दोनों प्रभावित-से हुए लगते थे.

तब उन दोनों के पाँव छूकर उसने माफ़ी माँगी थी कि उससे बेवकूफी में ग़लती हो गई है और मेहरबानी करके उसे छोड़ दिया जाए.

उसके बाद उसे अपने सैक्शन में जाकर काम करने को कहा गया था. अब वह अपनेआप को कुछ-कुछ आश्वस्त-सा महसूस करने लगा था. उसे लगने लगा था कि अब वे लोग कम-से-कम उसकी नौकरी तो नहीं ही लेंगे. मगर गहराई से सोचने पर पसीने तो उसे अब भी छूट जाते थे. दो दिन बाद चार्जशीट देकर 60 दिन की छुट्टी पर जाने की इजाज़त उसे दे दी गई थी.

इंक्वायरी की हर सुनवाई के दौरान खन्ना साहब अपनी योग्यता का परिचय दे रहे हैं. घोष साहब के सामने यह साबित करने की पूरी-पूरी कोशिश वे कर रहे हैं कि उसने रिश्वत देने की कोशिश नहीं की. घोष साहब के सामने तो उसने अपना ज़ुर्म कभी कबूल नहीं किया, लेकिन सच किसी तरह उन्हें पता चल गया हुआ है - ऐसा उनकी भाव-भंगिमाओं से लगता है.

इस बात का उसे काफी संतोष और खुशी है कि दिल्ली जैसे महानगर में बग़ैर किसी लंबी-चौड़ी जान-पहचान के उसे खन्ना साहब जैसे अक्लमंद और सुलझे हुए व्यक्ति बतौर डिफैंस असिस्टेंट मिल गए हैं. खन्ना साहब से उसकी मुलाक़ात बेदी ने करवाई थी. वे उसके पिता के काफी गहरे दोस्त हैं.

यह ज़रूर है कि इंक्वायरी के सिलसिले में उसे खन्ना साहब के दफ़्तर और घर के चक्कर खूब लगाने पड़ते हैं. खन्ना साहब का दफ़्तर वैसे तो उसके दफ़्तर से ज़्यादा दूर नहीं, पर इतना नज़दीक भी नहीं कि दस-पंद्रह मिनट चलकर वहाँ पहुँचा जा सके. बस से ही आना-जाना पड़ता है, जिसमें दस रुपए लग जाते हैं. उनके घर जाए तो बीस रुपए खुल जाते हैं. लगभग हर रोज़ दस या बीस रुपए का ऐसा खर्च आजकल उसे बहुत अखरने लगा है. लेकिन यह सब किए बगैर बात भी तो नहीं बन सकती न. यह सब भागदौड़ करने से ही उसकी नौकरी बची रह सकने की उम्मीद हो सकती है.

जे.एस. और डी.एस. से माफ़ी माँगने के बाद उसी शाम माफ़ी तो उसने सेक्रेटरी साहब से भी माँगी थी. अप्रत्यक्ष रूप से उनके सामने भी अपना ज़ुर्म उसने कबूल कर लिया था. सुनकर वे उस पर बिगड़ने लगे थे कि आख़िर वह उस यू.डी.सी. के पास गया ही क्यों, जबकि उसकी छुट्टी उन्होंने मंजूर कर दी हुई थी. अपने प्रमाणपत्र वग़ैरह उसने उन्हें भी दिखाए थे. देखकर वे प्रभावित हुए बिना न रह सके थे. उन्होंने तो विभिन्न परीक्षाओं में पाए उसके अंक और उसकी कुछ रचनाओं के शीर्षक भी बोल-बोलकर पढ़े थे. आखिर में उन्होंने उससे कहा तो सिर्फ ‘देखेंगे’ ही था, मगर उनके ऐसा कहने के अंदाज से उसे यह भान हो गया था कि यह बात उनके दिमाग में बैठ गई है कि यूँ ही नासमझी में उससे ग़लती हो गई है और वे जे.एस. को उसके प्रति नर्म रवैया अख़्तियार करने को कहेंगे.

अप्रैल की तनख्वाह मिलने पर खन्ना साहब के बाकी आठ सौ रुपए उसने चुका दिए हैं. मकान मालिक के किराए का उधार करना मुश्किल है, इसलिए उसके तीन हज़ार रुपए भी उसने अदा कर दिए हैं. हर महीने घरवालों को भेजे जाने वाले पाँच हज़ार रुपयों में भी वह कोई कटौती नहीं करना चाहता. उसके बूढ़े रिटायर्ड बाबूजी की छह हज़ार रुपए की पेंशन और उसके भेजे गए पाँच हज़ार रुपयों से ही गांव में उसके परिवारवालों का गुजारा चलता है. यह बात उसके दिमाग में कई बार आई है कि कोई तगड़ा-सा बहाना बनाकर माँ और बाबूजी से इस बार कम पैसे भेजे जाने के लिए माफ़ी माँग ले. मगर उसे लगता है कि उनके पैसों में कटौती करके चैन से नहीं रह पाएगा वह. उसकी आत्मा उसे हरदम कचोटती रहेगी. इसलिए पाँच हज़ार रुपयों का मनीऑर्डर उसने बाबूजी के नाम करवा दिया है. मनीआर्डर कमीशन के 250 रुपए अलग से खर्च हो गए हैं.

इस तरह करीब आठ हज़ार रुपए खर्च करने के बाद अब उसके पास लगभग सात हज़ार रुपए ही बचे हैं. इन रुपयों से उसे अपना महीने भर का खर्च चलाना है. बेदी से उधार लिए एक हज़ार रुपए भी अभी उसे वापिस करने हैं. इसके अलावा खन्ना साहब को जुलाई के शुरू में बाकी के आठ हज़ार रुपए अदा करने के लिए भी उसे अभी से इंतज़ाम करना शुरू कर देना चाहिए. तब तक सिर्फ मई और जून की तनख़्वाह ही तो और मिलनी है.

उसने हिसाब लगाकर देखा है कि अगर वह एक-एक पैसा दाँतों से पकड़े, तो भी खाने-पीने और दूसरी जरूरतों पर छह हज़ार रुपए तो खर्च हो ही जाएंगे. इस तरह उसके पास करीब हज़ार रुपए ही बच रहेंगे. मगर उसे तो आख़िरी सुनवाई से पहले खन्ना साहब को आठ हज़ार रुपए देने हैं. इसलिए फिलहाल बेदी को तो पैसे वापिस करने लायक उसकी हालत है नहीं. वह सोच में डूबा हुआ है. ख़ैर, बेदी का हिसाब तो दो-तीन महीने बाद भी साफ किया जा सकता है. उसे लगता है, उसकी मजबूरी समझ इस बात के लिए तैयार हो ही जाएगा वह.

वह एक-एक दिन का हिसाब लगा रहा है कि उसे खन्ना साहब को बाकी के आठ हज़ार रुपए कब तक देने होंगे. बार-बार वह इसी नतीजे पर पहुँचता है कि जुलाई के शुरू में ही केस की आख़िरी सुनवाई हो जाएगी यानी कि जुलाई के शुरू में ही आठ हज़ार रुपए खन्ना साहब को देने पड़ेंगे. लेकिन तब तक इतने रुपयों का बंदोबस्त आख़िर वह करेगा कहाँ से? उसके हिसाब के मुताबिक तो अप्रैल में बचाए एक हज़ार रुपयों के अलावा दो-दो हज़ार रुपए वह मई और जून की तनख्वाह में से बचा सकेगा. इस तरह जुलाई के शुरू में उसके पास कुल पाँच हज़ार रुपए ही होंगे खन्ना साहब को देने के लिए. तब बाकी के तीन हज़ार रुपयों को इंतज़ाम कैसे होगा?

यह बात वह अच्छी तरह समझता है कि खाने-पीने का खर्च इतना ज़्यादा घटाकर वह अपना ही नुक्सान कर रहा है, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से वह काफी कमज़ोरी-सी महसूस करने लगा है. लेकिन ऐसे वक़्त में जब नौकरी रहने के आसार भी धुंधले नज़र आ रहे हों, अपनी सेहत का ख़याल रखा भी कैसे जा सकता है.

बाजार की चाय से घर में बनाई चाय पर तो वह आ ही गया हुआ था, पर अब तो उसने चाय में दूध डालना भी छोड़ दिया है. दूध वह खरीदता ही नहीं आजकल. कभी-कभी तो जानबूझकर चाय में चीनी भी नहीं डाला करता. रोटी को चुपड़ना तो उसने बंद कर ही दिया हुआ था, मगर अब तो उसने उनकी गिनती भी घटा दी है. पहले जहाँ वह सुबह तीन और दोपहर व रात को चार-चार रोटियाँ खाया करता था, वहीं अब उसने सुबह दो और दोपहर व रात को तीन-तीन रोटियाँ खाकर ऊपर से ढेर सारा पानी पी लेना शुरू कर दिया है.

खाने-पीने के मामले में की जा रही उसकी कटौतियाँ अशोक से छिपी हुई थीं, क्योंकि खाने-पीने में उसकी उससे कोई साझेदारी नहीं थी. अशोक होटल-ढाबे में खाना खाता था. चाय तक वह बाहर से पीता था. अपनी अधमिटी भूख और बढ़ती कमज़ोरी को महसूस करता हुआ वह यही सोचकर अपनेआप को तसल्ली दे लेता है कि ऐसी हालत कोई हमेशा रहने वाली तो है नहीं. जुलाई में जब खन्ना साहब को किसी तरह बाकी के आठ हज़ार रुपए अदा कर दिए जाएंगे, तब तो उसका बोझ काफ़ी हल्का हो जाएगा. उसके बाद इंक्वायरी में अगर वह बरी हो गया और साथ ही असिस्टैंट ग्रेड परीक्षा में से भी निकल गया, तब तो उसके पास पैसों की कमी नहीं रहेगी. उसे काफ़ी उम्मीद थी कि ये दोनों बातें हो ही जाएंगी.

तब तो अपने घरवालों को हर महीने आठ-दस हज़ार रुपए भेज दिया करेगा. वह ख़यालों में खोने लगता है. उसके बाबूजी और माँ सारी उम्र गरीबी की चक्की में पिसते रहे हैं. उन्हें जितना ज़्यादा सुख और आराम वह दे सके, उसे देना चाहिए. तब तो वह कुछ पैसा बचाना भी शुरू कर देगा. आख़िर अपनी दोनों बहनों की शादी की ज़िम्मेदारी उसी पर ही तो है. अपने छोटे भाई को भी उसने बहुत पढ़ाना है. अपनी तरह कोई क्लर्क थोड़े ही बनने देना है. और फिर उसके बाद उसे अपनी शादी भी तो करनी है. वह ख़ूब मेहनत करेगा और तरक्की करते-करते एक दिन बहुत बड़ा अफ़सर बन जाएगा.

मगर जैसे ही उसे अपनी मौजूदा हालत का ध्यान आता, उसके ये सुनहरे ख़्वाब बिखर-बिखर जाते. तब कई बार तो उसकी रूलाई ही फूट पड़ती. उसका जी चाहता कि ऐसे में सान्त्वना देने के लिए उसकी माँ या बाबूजी का हाथ उसके सिर और कंधों पर हो. लेकिन वे लोग तो उससे बहुत दूर बैठे थे. अपनी इंक्वायरी की बात उसने अभी तक उन्हें बताई ही नहीं थी और फिलहाल बताकर उनकी नींद हराम करना नहीं चाहता था.

वह अक्सर सोचा करता कि गरीबी ने उसे क्लर्क बनने पर तो मजबूर कर दिया है, लेकिन तरक्की करने से नहीं रोक पाएगी. जब-जब दो-चार दिनों के लिए वह अपने गाँव जाया करता, तब-तब अपने घरवालों को भरपूर दिलासा देकर आता कि वह खूब मेहनत कर रहा है और जल्दी ही तरक्की हो जाने पर उसकी तनख़्वाह पच्चीस हज़ार रुपए से ज़्यादा हो जाएगी.

और वास्तव में खूब मेहनत वह कर भी रहा था. अपना एक पल भी वह ख़ाली नहीं गँवाया करता था. वक़्त की कीमत की समझ उसे थी.

वह तो न जाने कौन-सी मनहूस घड़ी थी जिसमें किसी ने उसे सलाह दी थी कि वह सूद के पास जाकर उससे ज़रा साँठ-गाँठ करे. साँठ-गाँठ का मतलब उसने यही लगाया था कि वह सूद को कुछ खिला-पिला दे. लेकिन तभी यह बात उसके दिमाग़ में आई थी कि महीने की 23 तारीख चल रही है, सो इन दिनों सूद को पैसों की तंगी तो होगी ही. ऐसे में कुछ खिलाने-पिलाने की बजाय अगर उसे पैसे-वैसे दे दिए जाएँ, तो ज़्यादा अच्छा रहेगा. पैसे देखकर सूद आसानी से मान जाएगा. यह सब सोच सूद को देने के लिए उसने अगले दिन ही बैंक से एक हज़ार रुपए निकलवा लिए थे.

लेकिन सूद के पास जाने से पहले वह अंडर सैक्रेटरी (प्रशासन) से मिल लेना चाहता था. उसे उम्मीद थी कि अपनी मुश्किलें बताने पर शायद वे उसे 60 ही दिन की छुट्टी दे देने को राज़ी हो जाएँ. उन्हें मिलने वह दो बार गया भी था, पर दोनों बार वे नहीं मिले थे. किसी मीटिंग में गए हुए थे. प्रशासन के सैक्शन ऑफिसर उन दिनों छुट्टी पर थे. अब सूद ही था जो कुछ कर सकता था. मगर एक यू.डी.सी. को छुट्टियों के लिए मिन्नत करना उसे जंच नहीं रहा था, इसलिए वह वापिस अपने सैक्शन की तरफ चल पड़ा था.

पर तभी यह बात उसके दिमाग़ में आई थी कि उसके इम्तहान में सिर्फ़ दो महीने बाकी रह गए हैं और उसका एक-एक दिन कीमती है. अगले सोमवार से उसने छुट्टियाँ माँगी हैं और आज मंगलवार तो हो ही गया है. कहीं ऐसा न हो कि इस चक्करबाज़ी की वजह से वह सोमवार से छुट्टी पर जा ही न पाए. जितनी ज़्यादा देर से उसे छुट्टी मिलेगी, पढ़ाई करने के लिए उतना कम वक़्त उसे मिलेगा. और अगर कम वक़्त मिलने की वजह से वह इम्तहान में पास न हो पाया, तो अगले साल उसे फिर से इम्तहान देना पड़ेगा और इस तरह उसकी तरक्की में एक साल की देर हो जाएगी. इसलिए अगर उसे अगले सोमवार से छुट्टी पर जाने की इजाज़त मिल जाए तभी बात बन सकती है. दफ़्तर में सारा दिन काम करने के बाद तो पढ़ाई के लिए कोई ख़ास वक़्त बचता नहीं, इसलिए अगर उसे 60 दिन की छुट्टी मिल जाए, तो इन छुट्टियों में वह डटकर मेहनत करेगा और हर हाल में पास होकर दिखाएगा. जोश उसके दिल में ठाठें मार रहा था, लेकिन सामने अगर कोई मुश्किल थी तो छुट्टियों की.

आख़िर उसने तय कर ही लिया था कि अब किसी भी तरह इस मामले को निबटाना है. इसके लिए सूद से बात करने के अलावा और कोई चारा नहीं था. इसलिए वह वापिस सूद के कमरे की ओर चल पड़ा था. हो सकता है अपनी तकलीफें बताने पर वह 60 छुट्टियाँ देने को मान ही जाए. वह सोच रहा था कि सूद को वह विस्तार से अपनी मुश्किलों का बयान करेगा. एक तो यह कि अभी कुछ दिन पहले ही वह 20 दिन लंबे टाइफाइड से उठा है, जिसकी वजह से वह अभी तक इम्तहान की कोई ख़ास तैयारी नहीं कर पाया. दूसरे यह भी कि उसकी आँखों के किसी नुक्स के कारण डॉक्टरों ने उसे सिर्फ़ दिन की रोशनी में ही पढ़ने की सलाह दी हुई है. ऐसी हालत में 20 दिन की छुट्टियों में असिस्टेंट ग्रेड परीक्षा की तैयारी वह पूरी तरह से कर ही नहीं सकता. उसकी बातें सुनने के बाद अगर सूद पूरी छुट्टियाँ देने को मान गया तो ठीक है, वरना वह पैसे देने का तरीका आज़माएगा.

सूद के पास जाकर पहले तो बड़ी मुलायम आवाज़ में उसने यह पूछा था कि सैक्रेटरी साहब की मंज़ूर की हुई 60 दिन की छुट्टी के बजाय 20 छुट्टियाँ ही दे पाने की बात उसने क्यों लिखी है. लेकिन उसकी हर बात के जवाब में सूद ने यही कहा कि तेरी जगह कोई सब्स्टीट्यूट नहीं है, इसलिए तुझे 20 छुट्टियाँ ही दी जा सकती हैं. यहाँ तक कि टाइफाइड की बीमारी और आँखों के नुक्स वाली बातों से भी सूद नहीं पिघला था. तब उसने पैसे ही देने का फैसला कर लिया था. सूद की टोह लेने के लिए उसने बातों-बातों में उससे कहा था, ‘सूद साहब, आप चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं. आप तो जानते ही हैं यह मेरे कैरियर का सवाल है. किसी भी कीमत पर मैं छुट्टी चाहता हूँ.’ उसके दो-तीन बार ऐसा कहने पर भी सूद जवाब में चुप ही रहा था. उस चुप्पी का मतलब उसने यही लगाया था कि वह कुछ लेने-लिवाने के लिए तैयार है.

तब उसने सूद को टॉयलेट तक चलने के लिए कहा था. दूसरी बार कहने पर वह चलने के लिए तैयार हो गया था. जब वे दोनों टॉयलेट में पहुँचे तो संयोगवश वहाँ और कोई नहीं था. अंदर पहुँचकर उसने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर यह कहते हुए सूद की तरफ बढ़ा दिए थे, ‘आय एम रेडी टू पे फॉर इट.’ उसका ख़याल था कि सूद चुपचाप पैसे पकड़ लेगा और जितने लेने होंगे, उतने अपनी जेब में डालकर बाकी के नोट उसे वापिस करते हुए कहेगा, ‘जा काका, तू फिकर न कर. तेरा काम हो जाएगा.’ और अगर पैसे लेने की नीयत उसकी न हुई तो नोट उसे वापिस कर देगा.

उसके नोट हाथ बढ़ाकर सूद ने पकड़ भी लिए थे. फिर वह उन्हें गिनने लगा था. गिनते वक़्त उसके चेहरे पर हैरानी का-सा एक भाव आया था और फिर वह असमंजस में पड़ गया लगता था. तभी अचानक सूद को न जाने क्या हुआ था कि वह यह कहते हुए उसका हाथ पकड़कर खींचने लगा था, ‘‘तू चल मेरे साथ डी.एस. के पास. तूने समझ क्या रखा है? मुझे तो पहले से ही शक हो रहा था जब तू मुझे बार-बार टॉयलेट तक चलने को कह रहा था.’’

सुनकर वह एकदम सन्नाटे में आ गया था. यह सब हो जाएगा - ऐसा तो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. स्थिति एकदम से गोता खा गई थीं. उसके तो पसीने छूटने लगे थे. वह सूद के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था और रूआँसी हो आई आवाज़ में कहने लगा था, ‘‘मुझे माफ़ कर दीजिए सूद साहब. मुझे मालूम नहीं था.’’

‘‘क्या मालूम नहीं था? तू सीधे-सीधे मेरे साथ डी.एस. के पास चलता है कि नहीं? यह बात में डी.एस. तक क्या सैक्रेटरी तक पहुँचाऊँगा. सीधे-सीधे मेरे साथ डी.एस. के पास चल और लिखकर माफ़ी माँग.’’ यह सब कहते हुए सूद उसका हाथ पकड़कर उसे टॉयलेट से बाहर घसीटने की कोशिश करने लगा था.

उसने टॉयलेट में बने दीवार के मोड़ को कसकर पकड़ लिया था. सूद के साथ जाने का मतलब था खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेना.

सूद के बहुत खींचने पर भी जब वह उसके साथ चलने को तैयार नहीं हुआ तो सूद ने उसके हाथ से उसकी छुट्टी की अर्ज़ी के कागज छीन लिए थे. उसे लग रहा था कि अगर वह सूद के साथ जाने को तैयार नहीं हुआ तो वह अभी हल्ला मचाकर लोगों को इकट्ठा कर लेगा. वैसे भी किसी भी पल कोई आदमी टॉयलेट में आ सकता था. इसलिए वह सूद के साथ चलकर टॉयलेट से बाहर आ गया था. लेकिन बाहर आकर जैसे ही उसे दफ़्तर से बाहर जाने की सीढ़ियाँ नज़र आईं, वह झटके से उनकी तरफ लपक पड़ा था. सूद पीछे से उसे आवाज़ें ही देता रह गया था.

सड़क पर आकर अपने को यथासंभव छुपाते हुए वह तेज़ी से बस स्टॉप की ओर चल पड़ा था. वहाँ पहुँचकर उसे जो भी पहली बस दिखाई दी, वह उसमें चढ़ गया था. शाम के पौने सात बजे के करीब घर पहुंचने तक उसका डर काफी हद तक काफ़ूर हो चुका था. यही बात उसके दिमाग़ में आ रही थी कि सूद ने सिर्फ़ यह देखने के लिए कि कहीं उसके उसे रुपए देने के पीछे कोई चाल तो नहीं, यह सब नाटक किया होगा. अब कुछ होनेवाला नहीं है. उसके भाग आने के बाद सूद ने नोट चुपचाप अपनी जेब में डाल लिए होंगे और आराम से अपने सैक्शन में जाकर काम करने लगा होगा या घर चला गया होगा. इन लोगों को तो तरीके आते होते हैं पैसे डकारने के. कल जब वह दफ़्तर जाएगा, तो उसे पता चलेगा कि उसका काम बन गया है और सोमवार से वह छुट्टी पर जा सकता है.

लेकिन उसी रात साढ़े आठ बजे के करीब जब दफ़्तर का चपरासी उसके घर जे.एस. की चिट्ठी देने आ गया तो वह धक्क से रह गया था.

इंक्वायरी की सुनवाइयाँ चल रही है. इन दिनों अत्यधिक तनाव में होने के बावजूद इस बात का संतोष उसे है कि खन्ना साहब उसका केस अच्छी तरह से लड़ पा रहे हैं. उसकी यह उम्मीद काफी मजबूत होती जा रही है कि वे उसकी नौकरी जाने से बचा लेंगे.

वह रोज़-रोज़ कागज़ पैन लेकर बैठ जाता है कि जुलाई के शुरू में खन्ना साहब को देने के लिए आठ हज़ार रुपयों का जुगाड़ किस तरह बिठाया जाए. हालाँकि यह बात वह अच्छी तरह जानता है कि यूँ बार-बार हिसाब-किताब लगाने से उसके पैसे कोई बढ़ जाने वाले नहीं, लेकिन हर बार उसे यही लगता रहता है कि शायद कहीं उससे कोई ग़लती न हो गई हो और असल में उसके पास उससे ज्यादा रुपए हों जितने वह समझता है. मगर हर बार वह इसी नतीजे पर पहुँचता है कि जुलाई के शुरू में खन्ना साहब को देने के लिए उसके पास पाँच हज़ार रुपए ही हो सकते हैं, इससे ज्यादा नहीं. पर बाकी के तीन हज़ार रुपए? उन्हें कहाँ से लाए? कुछ बेच दे? लेकिन क्या? घड़ी? हाँ? घड़ी बेची जा सकती है. ऐसा करने से करीब पाँचेक सौ रुपए तो उसे मिल ही जाएंगे. और क्या चीज़ बेची जा सकती है? घड़ी के अलावा तो और कोई चीज़ बेचकर गुज़ारा चल नहीं पाएगा उसका. अब वह क्या करे? कहाँ जाए? उसका दिमाग़ इन्हीं सवालों के भंवर में घूमता रहता है.

उधार भी तो उसे कोई नहीं देगा. दफ़्तर में तो सब लोग उसकी इंक्वायरी की बात जान ही गये हैं. घर के आसपास भी उसकी खास जान-पहचान का कोई नहीं. उधार दे सकने लायक जान-पहचान का तो बिल्कुल कोई नहीं. अशोक या अपने मकान-मालिक से भी किसी मदद की उम्मीद उसे नहीं है.

दफ़्तर में ओवरटाइम या शाम को कहीं पार्टटाइम काम करके भी कुछ कमाना उसके लिए मुमकिन नहीं. 60 दिन की छुट्टी से वापिस आने के बाद उसे एक अमहत्त्वपूर्ण-से सैक्शन में पोस्ट कर दिया गया था. यहाँ काम इतना होता ही नहीं कि ओवरटाइम किया जा सके. जहाँ तक पार्टटाइम काम करने का सवाल है, यह बात भी उसे संभव दिखाई नहीं देती. इंक्वायरी के चक्कर में आजकल इतनी अधिक भागदौड़ उसे करनी पड़ रही है कि शायद ही ऐसी कोई शाम हो, जो उसे खन्ना साहब के साथ न बितानी पड़ती हो. अनगिनत काम हैं, कभी कोई जवाब तैयार करना है, कभी कुछ ज़रूरी बातें डिस्कस करनी हैं, कभी बयान तैयार करने हैं, और कभी सूद के पक्ष में बयान देने वाले गवाहों की टोह लेने के लिए जाने कहाँ-कहाँ के धक्के खाने हैं, वगैरह-वगैरह. कई बार तो अपने कमरे में आते-आते उसे रात के ग्यारह-साढ़े ग्यारह भी बज जाते हैं.

आज उसे पता चला है कि केस की आख़िरी सुनवाई जुलाई के शुरू में नहीं बल्कि जून की 25 तारीख को ही हो जाएगी. सुनते ही उसके प्राण खुश्क हो गए है. इसका मतलब है कि जून की तनख्वाह मिलने से पहले ही उसे खन्ना साहब को आठ हज़ार रुपए दे देने होंगे. इसका मतलब यह भी है कि जून की तनख्वाह में से दो हज़ार रुपए बचाने का जो हिसाब उसने लगाया हुआ था, वह गलत हो जाएगा. घड़ी बेच देने के बाद भी साढ़े चार हज़ार रुपयों का बंदोबस्त अब उसे करना पड़ेगा.

अगले एक महीने में और साढ़े चार हज़ार रुपयों के प्रबंध का सवाल उसके दिमाग़ को हर पल खाए जा रहा है. ले-देकर अब एक ही तरीका उसे नज़र आ रहा है कि भुगतान करते वक़्त खन्ना साहब से उधार कर लिया जाए. लेकिन उधार करने की भी तो कोई हद होती है. आठ हज़ार रुपयों में से साढ़े चार हज़ार रुपयों का उधार करने की बात कहना ही बेवकूफ़ी लगती है. और मान लो, अगर ढीठ बनकर ऐसा वह कह भी दे, तो क्या इतनी बड़ी रकम का उधार करने के लिए वे तैयार हो जाएंगे? उसे लगता है कि नहीं होंगे. बाकी के आठ हज़ार रुपए आख़िरी सुनवाई से पहले अदा करने की शर्त रखी ही इसलिए गई थी कि उसका काम हो जाने के बाद खन्ना साहब को उसके पीछे-पीछे चक्कर न लगाने पड़ें. और फिर इस बात की उसके पास क्या गारंटी है कि बाद में वह खन्ना साहब का हिसाब चुकता कर ही देगा? क्या इतना विश्वास किया जा सकता है उस पर?

कहीं से उसे साढ़े चार हज़ार रुपए मिल जाएं तो उसका काम बन जाए. लेकिन इतने रुपए आखिर मिलें कहां से? इसी चिंता में डूबे-डूबे जब उसका सिर भन्नाने लगता है तो वह ‘जो होगा देखा जाएगा’ सोचकर अपने दिल को तसल्ली देने लगता है.

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मई की 31 तारीख़. उसे तनख़्वाह मिल गई है. तनख़्वाह के पन्द्रह हज़ार रुपयों को बहुत सँभालकर उसने अपनी पैंट की अंदरूनी जेब में डाला हुआ है. दफ़्तर में अपनी सीट पर बैठे-बैठे भी उसका हाथ बार-बार उस जेब की तरफ चला जाता है. आख़िर ये रुपए ही तो इस महानगर में उसके लिए सब कुछ हैं - उसके जीने-मरने का आधार. रह-रहकर उसे पछतावा हो रहा है कि आज वह चप्पलें क्यों पहनकर आ गया, बूट पहनकर क्यों नहीं आया? बूट पहनकर आया होता तो नोट जुराबों में छिपाए जा सकते थे. घर जाते वक़्त बस में जेब कटने का डर न रहता. लेकिन इन दिनों दरअसल पैसों के जोड़-घटा में ही वह इतना ज़्यादा उलझा रहता है कि अक्सर कई ज़रूरी चीजें भी उसके दिमाग़ से उतर जाया करती हैं. और फिर बूट पहनने लायक रहे भी कहाँ हैं उसके? जगह-जगह से तो फट गए हैं. ज़ुराबों में भी कई-कई छेद हो चुके हैं. और फिर इतनी गरमी में बूट-ज़ुराबें पहनना भी तो आसान बात नहीं.

पहले तो तनख़्वाह वाले दिन डी.टी.सी. के बजाय बीस रुपए देकर वह किसी चार्टेड बस से घर चला जाया करता था. डी.टी.सी. की बसों की अथाह भीड़ में जेब की सलामती कोई आसान बात नहीं. मगर सख़्त कड़की की वजह से पिछले महीने के तनख़्वाह वाले दिन की तरह आज भी चार्टेड बस से जाने का इरादा उसने छोड़ दिया है. डी.टी.सी. की बस पकड़ने के लिए केन्द्रीय टर्मिनल की ओर पैदल जाते हुए यह डर उसके दिमाग़ में तेज़ी से चक्कर काट रहा है कि बस की धक्कमपेल में कहीं उसकी जेब न कट जाए. लेकिन पिछली बार भी तो वह डी.टी.सी. से ही गया था. कुछ भी तो नहीं हुआ था तब. दूसरे हजारों लोग भी तो तनख़्वाह लेकर हमेषा डी.टी.सी. से ही जाते हैं. जब उनकी जेबें सही-सलामत रहती हैं तो उसके रुपयों को क्या हो जाएगा? उसे हिम्मत वाला बनना चाहिए. पता नहीं कल को उसकी इंक्वायरी की क्या रिपोर्ट आए. क्या पता उसकी नौकरी भी रहे या न रहे. क्या पता उसे कहाँ-कहाँ की ठोकरें खानी पड़ें. अगर उसमें हिम्मत होगी, हौंसला होगा, तभी वह ऐसे हालात का मुकाबला कर पाएगा.

यह सब सोच वह अपने अंदर काफी आत्मविश्वास महसूस करने लगा है और डी.टी.सी. से जाने का अपना इरादा उसने क़ायम रखा है. लेकिन चाहकर भी अपनी जेब टटोलना वह छोड़ नहीं पा रहा.

केन्द्रीय टर्मिनल पर करीब 10 मिनट तक इंतजार करने के बाद उसके मतलब की बस आई है, पर बस में चढ़नेवालों की भीड़ देखकर उसने वह बस छोड़ दी है. ठसाठस भरी बस में खड़े होकर भीड़ में पिसते हुए वह नहीं जाना चाहता. अगली बस भी उसने भीड़ की वजह से छोड़ दी है. उसके मतलब की तीसरी बस आने तक भीड़ कम हो चुकी है. उसने दूसरे लोगों को चढ़ जाने दिया है और फिर यह देखकर कि अभी भी बस में कुछ सीटें खाली हैं, वह एक सीट पर जाकर बैठ गया है. अपनी जेब की सलामती के लिए ये सब सावधानियाँ बरतना उसे ज़रूरी लग रहा है. इस बीच थोड़ी-थोड़ी देर बाद उसका हाथ पैंट की अंदरूनी जेब की टोह लेने लगता है.

अपना स्टॉप नज़दीक आता देख उठने से पहले उसने एक बार फिर अपनी जेब टटोली है. पैसे जेब में हैं. चलो डी.टी.सी. से तो दस रुपए में ही आ गए. चार्टेड में आते तो बेकार में बीस रुपए लग जाते - सोचते हुए उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट आ गई है.

ठसाठस भरी बस में लोगों के बीच में से बड़ी मुश्किल से निकलते हुए वह बस के अगले दरवाज़े की ओर बढ़ने लगा है. बस इतनी ज़्यादा भरी हुई है कि अपना स्टॉप आने तक भीड़ को चीरकर अगले दरवाज़े तक पहुँच पाना उसे काफ़ी मुश्किल लग रहा है. लेकिन किसी तरह धक्का-मुक्की, जोर-आज़माइश करते हुए अगले दरवाज़े तक पहुँच पाने में वह कामयाब हो ही गया है.

बस से उतरकर संतोष और खुशी का मिला-जुला भाव उसके चेहरे पर उग आया है कि चलो, पहुँच ही गए. अब चलकर ज़रा आराम से कमरे में बैठते हैं. तभी उसका हाथ पैंट की अंदरूनी जेब की तरफ चला गया है और इसके साथ ही उसे एक ज़बरदस्त झटका लगा है. उसकी जेब ख़ाली है, बिल्कुल ख़ाली.

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